एक कविता, धर्म की ख़िलाफ़त करने की अपनी सोच व्यक्त करती हुई। कई अनुभवों के परे होने पर हम धर्म के विरुद्ध अपने कड़े विचार और धर्म की तरफ़ अपनी नफ़रत को एक कविता के ज़रिए बयान कर रहे हैं। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपनी प्रतिक्रियाओं में धर्म (धार्मिक मान्यता) का साथ देनेवाले मत पर बल देनेवाले तर्क प्रस्तुत नहीं करें। यहाँ एक मान्यता ही पेश की जा रही है।
धर्म की ख़िलाफ़त
कवि - विदुर सूरी
अय धर्म तू बुरा है, अय धर्म तू बला है
अब न दग़ा खाएँगे, तेरा पता चला है
अरमानों पे हमारे, बरबादी को उछारे
ख़ुशियाँ सभी मिटाकर, ग़म से तू हमको मारे
दिल को यही है लगता, जब फंसे जाल में कि
धरम है सही जबकि है जिगर को जलाता
पेंच हैं तेरे दलदल - से, और लगते हैं जो दिल से
अब ज़ुल्म न सहेंगे, न झेलेंगे मुश्किल से
जब तू ही है गुनहगार, क्यों हम ख़ुद ही को मानें ?
तेरी है, न हमारी ख़ता, यह बात जानें
कभी अपने रब्ब की तू भरता है ख़ौफ़ दिल में
कभी ऊंच बन ढकेले हमें नीचों के बिल में
जिगर का लहू पीकर, और ठोकरें खिलाकर
उम्मीद झूठी देकर, निराशा रस पिलाकर
जब हो यक़ीन तुझ पर, ज़ोरों से ही तू छूटे
मजनू बनाके छोड़े, क़ायदे नेक टूटें
होश पाएँ सच का लेकिन हम जागें नींद से जब
पर्दाफ़ाश होता है तेरा तब, ओ मज़हब!
तो अच्छाई के ख़ातिर हम धर्म को मिटाएँ
उठा नक़ाबे - बद को, हम भूल को छिंटाएँ
है इसी में भलाई कि धर्म से करो नफ़रत
दुश्मने - जानी और दोस्त में तो तुम करो फ़रक़
फिर कौन प्रभु अपना, इसका जवाब सुन लो
वही जो तुम ख़ुद मानो, जो है सही, वह चुन लो
गर मानो इसलिए कि हिफ़ाज़त मिल जाए
गर मानना ही न हो, त्यों ही ग़ुल खिल जाएँ
पर याद रखना हरदम, कि सच्चा ख़ुदा है यही
आपस की अपनी ख़ैरख़ाही और प्यार से अलग कुछ नहीं
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