XY प्रकार के शरीरवाले पहलवान (चाहे जिस लिंग का हो) की सुंदरता को बरनता हुआ एक लमछुआ काव्य - महाकाव्य! इसे मैंने ब्रजभाषा में लिखा है, और शास्त्रीय ढंग (पुरानी पारंपरिक विधि) में लिखने की कोशिश की है, यद्यपि हिंदी भाषाओं की अपनी अनूठी शब्दावली से भी बहुतेरे शब्द लिए हैं।
Sunday, May 29, 2016
Saturday, May 28, 2016
Friday, May 27, 2016
Naav ki neenv (Kavita)
जब अपनी नैया टुकड़े - टुकड़े होकर टूट पड़े, तब मन की भावनाओं के आगे अपनी चतुराई और बूझ को रखना पड़ेगा। तभी बच पाएगा डूबनेवाला। इसी से जुड़ी एक कविता, और हमारी वैश्व दृष्टिकोण.....
नाव की नींव
कवि - विदुर सूरी
क्या किया जाए जब मझधार में
थपेड़ा नाव को लगे उतारने
बाई झकझोरी हिला - डुलाए
चारों ओर अँधेरा छाए
नाव की हर पटरी लगे टूटने
पानी लगे हर छेद से फूटने
कील बिछड़ें नाव रूप खोए
जल बहके हर खूँट डुबोए
मस्तूल धँसे धीरे - धीरे
आँधी पाल को फाड़े - चीरे
पतवार पड़ गए सागर में
न खेवइया, माँझी है धरने
नभ पे डरावना उथल - पुथल हो
कोई न भनक है कि क्या कल हो
न जाने कब घेरनेवाला जल हो
डर तड़पाता हरेक छिन - पल हो
कोई न साथी, कोई न सहारा
और न दिखे एक भी चारा
कैसे चमके आस का तारा
जो मन ने अपना धीर हारा ?
जिया है पहिला डर का मारा
दूसरा है एक हिया बिचारा
लगे की बखेड़ा नहीं जाएगा टारा
अंदर जलें ज्यों धूप में पारा
तब अंत में किया ही क्या जाए
मिटने की होनी देख जी करे हाय - हाय
कैसे दिल को आस दिलाएँ
सूझे किनारा दाएँ न बाएँ
धर्म से घिन कर, सदा अपने आप पे आदर
अश्लीलता का विरोध, सब लिंग, लोग पक्के से बराबर
कड़ी स्थिति में आप बचाकर
अलौकिकता है अनहोनी, उससे कभी मत दर
बुराई के बढ़ावे, टुच्चे औरों का न दे साथ
स्वाधीनता, कला, भाषा ज्यों सुंदर लाट
हटा अनचाहे आवेग के आघात
समझ, बहुत बढ़कर है जिसकी बात
ज्ञान ले प्यारे अनुभूतियों से, कर काम स्वीकरणीयता की ओर
आत्म सम्मान, प्यार और नेकी को दे सबसे ऊँचा ठौर
मन न माने, और तू न मनाए
समझ से तरने की नाव बनाए
© Vidur Sury. All rights reserved
© विदुर सूरी। सर्वाधिकार सुरक्षित
नाव की नींव
कवि - विदुर सूरी
क्या किया जाए जब मझधार में
थपेड़ा नाव को लगे उतारने
बाई झकझोरी हिला - डुलाए
चारों ओर अँधेरा छाए
नाव की हर पटरी लगे टूटने
पानी लगे हर छेद से फूटने
कील बिछड़ें नाव रूप खोए
जल बहके हर खूँट डुबोए
मस्तूल धँसे धीरे - धीरे
आँधी पाल को फाड़े - चीरे
पतवार पड़ गए सागर में
न खेवइया, माँझी है धरने
नभ पे डरावना उथल - पुथल हो
कोई न भनक है कि क्या कल हो
न जाने कब घेरनेवाला जल हो
डर तड़पाता हरेक छिन - पल हो
कोई न साथी, कोई न सहारा
और न दिखे एक भी चारा
कैसे चमके आस का तारा
जो मन ने अपना धीर हारा ?
जिया है पहिला डर का मारा
दूसरा है एक हिया बिचारा
लगे की बखेड़ा नहीं जाएगा टारा
अंदर जलें ज्यों धूप में पारा
तब अंत में किया ही क्या जाए
मिटने की होनी देख जी करे हाय - हाय
कैसे दिल को आस दिलाएँ
सूझे किनारा दाएँ न बाएँ
धर्म से घिन कर, सदा अपने आप पे आदर
अश्लीलता का विरोध, सब लिंग, लोग पक्के से बराबर
कड़ी स्थिति में आप बचाकर
अलौकिकता है अनहोनी, उससे कभी मत दर
बुराई के बढ़ावे, टुच्चे औरों का न दे साथ
स्वाधीनता, कला, भाषा ज्यों सुंदर लाट
हटा अनचाहे आवेग के आघात
समझ, बहुत बढ़कर है जिसकी बात
ज्ञान ले प्यारे अनुभूतियों से, कर काम स्वीकरणीयता की ओर
आत्म सम्मान, प्यार और नेकी को दे सबसे ऊँचा ठौर
मन न माने, और तू न मनाए
समझ से तरने की नाव बनाए
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Thursday, May 26, 2016
Alaukik bhavon se mat daro (Kavita)
अलौकिक कल्पनाओं के ख़याल हर मनुष्य के मन में उठते हैं, और समझदार होकर भी केवल भय के कारण व्यक्ति इसमें फंसा रहता है। ये मन के सबसे ओछे विचार ही हैं, इनसे मत डरिए, न कभी भी इनके अस्तित्व में विश्वास रखिए। अलौकिक तत्त्व अनहोनी हैं, इसी समझ से अपने इन सबसे घटिए विचारों को उखाड़कर फेंक दीजिए जिसमें इनकी पहचान ही मिट जाए। इस सुविज्ञ, विकसित, आधुनिक युग में ऐसी सोच और ऐसी घबराहट से छुटकारा पाना एकदम बनता है। तो चलिए, अलौकिकता के फालतू डर से छुटकारा पाएँ और विकास से पग मिलाते हुए आगे बढ़ें !
और इसी के बारे में एक कविता......
अलौकिक भावों से मत डरो !
कवि - विदुर सूरी
भूत - प्रेत, हौआ, राछस, असुर, बेताल, चुड़ैल, पिशाच, आदि
सब मन की नीचतम कल्पनाएँ हैं, मत सोचके बनना अनाड़ी
इन सबकी जड़ है डर और बूझ के बिरुध यही काम करे
मन के भाव जब डर बनें, तब जान छोड़ भय को थाम वह लें
और यही डर जब भी छा जाए मन को कभी न शान्ति आए
किन्तु सच्चाई तो यही है कि अलौकिकता की अनहोनी वह भुलाए
डर के भरमाए मन काँपे जबकि कोई न रुकावट हो
अब वह भी किस तरह कल पाए जब संकट की सदा आहट हो ?
पर क्या वास्तव में कोई अलौकिक भयंकर कोई तत्त्व भी है ?
सच तो यह है की यों कुछ भी नहीं, सब डर के घाते घाव ही हैं
मन पे बस रखना होगा जभी इस अनन्त डर को मिटाना हो
हालांकि डर में थरथराओ, तब भी सोच को बल से उठा दो
सारे सोच - विचार, सूझ - बूझ, भाव - रास रोकें आगे बढ़ने से
फिर भी जब सच है कि भूत नहीं, बरबस ही सही निकलो डर से
जब रास डर का हो, मन की कही मत मानो वरन पागलपन यह लगे
ठोस बनकर ललकारो अलौकिकता की होनी को, डर तुम्हें ठगे
चाहे साँप सूँघ जाए तुमको, इस बात पे ही तुम अड़िया बनो
कि अलौकिक, अतिप्राकृतिक किसी बस्तु की अस्ति नहीं, ठानो
अंत में जब तुम दबाव डाल, बिलकुल भी न मानो कि कोई प्रेत है
भय से अगसरके चतुर बनोगे, अपने किए पर तब न खेद है
© Vidur Sury. All rights reserved
© विदुर सूरी। सर्वाधिकार सुरक्षित
और इसी के बारे में एक कविता......
अलौकिक भावों से मत डरो !
कवि - विदुर सूरी
भूत - प्रेत, हौआ, राछस, असुर, बेताल, चुड़ैल, पिशाच, आदि
सब मन की नीचतम कल्पनाएँ हैं, मत सोचके बनना अनाड़ी
इन सबकी जड़ है डर और बूझ के बिरुध यही काम करे
मन के भाव जब डर बनें, तब जान छोड़ भय को थाम वह लें
और यही डर जब भी छा जाए मन को कभी न शान्ति आए
किन्तु सच्चाई तो यही है कि अलौकिकता की अनहोनी वह भुलाए
डर के भरमाए मन काँपे जबकि कोई न रुकावट हो
अब वह भी किस तरह कल पाए जब संकट की सदा आहट हो ?
पर क्या वास्तव में कोई अलौकिक भयंकर कोई तत्त्व भी है ?
सच तो यह है की यों कुछ भी नहीं, सब डर के घाते घाव ही हैं
मन पे बस रखना होगा जभी इस अनन्त डर को मिटाना हो
हालांकि डर में थरथराओ, तब भी सोच को बल से उठा दो
सारे सोच - विचार, सूझ - बूझ, भाव - रास रोकें आगे बढ़ने से
फिर भी जब सच है कि भूत नहीं, बरबस ही सही निकलो डर से
जब रास डर का हो, मन की कही मत मानो वरन पागलपन यह लगे
ठोस बनकर ललकारो अलौकिकता की होनी को, डर तुम्हें ठगे
चाहे साँप सूँघ जाए तुमको, इस बात पे ही तुम अड़िया बनो
कि अलौकिक, अतिप्राकृतिक किसी बस्तु की अस्ति नहीं, ठानो
अंत में जब तुम दबाव डाल, बिलकुल भी न मानो कि कोई प्रेत है
भय से अगसरके चतुर बनोगे, अपने किए पर तब न खेद है
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Wednesday, May 25, 2016
Dharm ki khilafat (Kavita)
एक कविता, धर्म की ख़िलाफ़त करने की अपनी सोच व्यक्त करती हुई। कई अनुभवों के परे होने पर हम धर्म के विरुद्ध अपने कड़े विचार और धर्म की तरफ़ अपनी नफ़रत को एक कविता के ज़रिए बयान कर रहे हैं। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपनी प्रतिक्रियाओं में धर्म (धार्मिक मान्यता) का साथ देनेवाले मत पर बल देनेवाले तर्क प्रस्तुत नहीं करें। यहाँ एक मान्यता ही पेश की जा रही है।
धर्म की ख़िलाफ़त
कवि - विदुर सूरी
अय धर्म तू बुरा है, अय धर्म तू बला है
अब न दग़ा खाएँगे, तेरा पता चला है
अरमानों पे हमारे, बरबादी को उछारे
ख़ुशियाँ सभी मिटाकर, ग़म से तू हमको मारे
दिल को यही है लगता, जब फंसे जाल में कि
धरम है सही जबकि है जिगर को जलाता
पेंच हैं तेरे दलदल - से, और लगते हैं जो दिल से
अब ज़ुल्म न सहेंगे, न झेलेंगे मुश्किल से
जब तू ही है गुनहगार, क्यों हम ख़ुद ही को मानें ?
तेरी है, न हमारी ख़ता, यह बात जानें
कभी अपने रब्ब की तू भरता है ख़ौफ़ दिल में
कभी ऊंच बन ढकेले हमें नीचों के बिल में
जिगर का लहू पीकर, और ठोकरें खिलाकर
उम्मीद झूठी देकर, निराशा रस पिलाकर
जब हो यक़ीन तुझ पर, ज़ोरों से ही तू छूटे
मजनू बनाके छोड़े, क़ायदे नेक टूटें
होश पाएँ सच का लेकिन हम जागें नींद से जब
पर्दाफ़ाश होता है तेरा तब, ओ मज़हब!
तो अच्छाई के ख़ातिर हम धर्म को मिटाएँ
उठा नक़ाबे - बद को, हम भूल को छिंटाएँ
है इसी में भलाई कि धर्म से करो नफ़रत
दुश्मने - जानी और दोस्त में तो तुम करो फ़रक़
फिर कौन प्रभु अपना, इसका जवाब सुन लो
वही जो तुम ख़ुद मानो, जो है सही, वह चुन लो
गर मानो इसलिए कि हिफ़ाज़त मिल जाए
गर मानना ही न हो, त्यों ही ग़ुल खिल जाएँ
पर याद रखना हरदम, कि सच्चा ख़ुदा है यही
आपस की अपनी ख़ैरख़ाही और प्यार से अलग कुछ नहीं
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धर्म की ख़िलाफ़त
कवि - विदुर सूरी
अय धर्म तू बुरा है, अय धर्म तू बला है
अब न दग़ा खाएँगे, तेरा पता चला है
अरमानों पे हमारे, बरबादी को उछारे
ख़ुशियाँ सभी मिटाकर, ग़म से तू हमको मारे
दिल को यही है लगता, जब फंसे जाल में कि
धरम है सही जबकि है जिगर को जलाता
पेंच हैं तेरे दलदल - से, और लगते हैं जो दिल से
अब ज़ुल्म न सहेंगे, न झेलेंगे मुश्किल से
जब तू ही है गुनहगार, क्यों हम ख़ुद ही को मानें ?
तेरी है, न हमारी ख़ता, यह बात जानें
कभी अपने रब्ब की तू भरता है ख़ौफ़ दिल में
कभी ऊंच बन ढकेले हमें नीचों के बिल में
जिगर का लहू पीकर, और ठोकरें खिलाकर
उम्मीद झूठी देकर, निराशा रस पिलाकर
जब हो यक़ीन तुझ पर, ज़ोरों से ही तू छूटे
मजनू बनाके छोड़े, क़ायदे नेक टूटें
होश पाएँ सच का लेकिन हम जागें नींद से जब
पर्दाफ़ाश होता है तेरा तब, ओ मज़हब!
तो अच्छाई के ख़ातिर हम धर्म को मिटाएँ
उठा नक़ाबे - बद को, हम भूल को छिंटाएँ
है इसी में भलाई कि धर्म से करो नफ़रत
दुश्मने - जानी और दोस्त में तो तुम करो फ़रक़
फिर कौन प्रभु अपना, इसका जवाब सुन लो
वही जो तुम ख़ुद मानो, जो है सही, वह चुन लो
गर मानो इसलिए कि हिफ़ाज़त मिल जाए
गर मानना ही न हो, त्यों ही ग़ुल खिल जाएँ
पर याद रखना हरदम, कि सच्चा ख़ुदा है यही
आपस की अपनी ख़ैरख़ाही और प्यार से अलग कुछ नहीं
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Tuesday, May 24, 2016
Saphalta sabse madhur maani jaaye - based on Emily Dickinson's 'Success is counted sweetest'
जानी - मानी और आदरणीय अतीतकालीन कवयित्री ऍमिली डिखिनसन की अंग्रेजी कविता 'success is counted sweetest' पर आधारित एक हिंदी संस्करण। यह उन्हीं महती कवयित्री को समर्पित है।
सफलता सबसे मधुर मानी जाए (Success is counted sweetest)
हिंदी संस्करण - विदुर सूरी
मूल अंग्रेजी संस्करण - ऍमिली डिखिनसन
सफलता सबसे मधुर मानी जाए
सफल कभी न होनेवालों से
एक अमृत को परखने के निमित भी
आवश्यकता की आवश्यकता पड़े।
जामनी रंग के गण में एक भी नहीं
जिन्होंने विजय ध्वज फहराया
कर सकते हैं परिभाषा कहके
कि जीत है वस्तु क्या ?
जब उसने हराया - मरते हुए -
जिसके वर्जित कानों पर
दूर की जय - जयकार की पड़ी बौछार
स्पष्ट, संतप्त वह फूटी है आकर
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Monday, May 23, 2016
Man Apnao Sahi Path (Kavita)
परिश्रम से सफलता पाने के विषय पर हमारी एक कविता रचना, साथ ही साथ धर्म के विरोध के अपने विचारों को माध्यम देते हुए। पाठकों से अनुरोध है कि वे अपनी प्रतिक्रियाओं में धर्म (धार्मिक मान्यता) का साथ देनेवाले मत पर ज़ोर देनेवाले तर्क प्रस्तुत बिलकुल नहीं करें। आपको जो उचित लगता है वह आपका निजी उसूल है, पर इसमें प्रकट किए हुए मत का विरोध नहीं करें।
कवि - विदुर सूरी
मन अपनाओ सही पथ
मिलें साँचे मनोरथ
बीचो - बीच जीवन की गत
तभी तुम हो पाओ उन्नत
कभी जो लगे धर्म ही अच्छा
ज़ुल्म ढाएगा, मिटाएगा कच्चा
धर्म की बातें कभी न ठीक
घिन करो उससे हो निर्भीक
काम में थककर जब सूझे
कि धर्म की ज़ुल्मों से जूझें
धर्म तो है झूठा सहारा
भद्दा इतना कि नहीं गँवारा
काम थकाए पैरों को
नदिया पार हो, तैरो तो
धर्म जलाए अपने पाँव
मौत से तो अच्छा है घाव
काम न करने को मन चाहे
ज्यों कि उठाकर गिरा दें बाहें
फिर भी सही गैल है काम
जीसी से मिले निज सुख धाम
काम का दबाव लगे निठुर
पथ पर बिछे हैं बहुत अंकुर
पर जब पार हो राह कठिन
दिखाएगी वह सुनहरे दिन
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मन अपनाओ सही पथ
मन अपनाओ सही पथ
मिलें साँचे मनोरथ
बीचो - बीच जीवन की गत
तभी तुम हो पाओ उन्नत
कभी जो लगे धर्म ही अच्छा
ज़ुल्म ढाएगा, मिटाएगा कच्चा
धर्म की बातें कभी न ठीक
घिन करो उससे हो निर्भीक
काम में थककर जब सूझे
कि धर्म की ज़ुल्मों से जूझें
धर्म तो है झूठा सहारा
भद्दा इतना कि नहीं गँवारा
काम थकाए पैरों को
नदिया पार हो, तैरो तो
धर्म जलाए अपने पाँव
मौत से तो अच्छा है घाव
काम न करने को मन चाहे
ज्यों कि उठाकर गिरा दें बाहें
फिर भी सही गैल है काम
जीसी से मिले निज सुख धाम
काम का दबाव लगे निठुर
पथ पर बिछे हैं बहुत अंकुर
पर जब पार हो राह कठिन
दिखाएगी वह सुनहरे दिन
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