अलौकिक कल्पनाओं के ख़याल हर मनुष्य के मन में उठते हैं, और समझदार होकर भी केवल भय के कारण व्यक्ति इसमें फंसा रहता है। ये मन के सबसे ओछे विचार ही हैं, इनसे मत डरिए, न कभी भी इनके अस्तित्व में विश्वास रखिए। अलौकिक तत्त्व अनहोनी हैं, इसी समझ से अपने इन सबसे घटिए विचारों को उखाड़कर फेंक दीजिए जिसमें इनकी पहचान ही मिट जाए। इस सुविज्ञ, विकसित, आधुनिक युग में ऐसी सोच और ऐसी घबराहट से छुटकारा पाना एकदम बनता है। तो चलिए, अलौकिकता के फालतू डर से छुटकारा पाएँ और विकास से पग मिलाते हुए आगे बढ़ें !
और इसी के बारे में एक कविता......
अलौकिक भावों से मत डरो !
कवि - विदुर सूरी
भूत - प्रेत, हौआ, राछस, असुर, बेताल, चुड़ैल, पिशाच, आदि
सब मन की नीचतम कल्पनाएँ हैं, मत सोचके बनना अनाड़ी
इन सबकी जड़ है डर और बूझ के बिरुध यही काम करे
मन के भाव जब डर बनें, तब जान छोड़ भय को थाम वह लें
और यही डर जब भी छा जाए मन को कभी न शान्ति आए
किन्तु सच्चाई तो यही है कि अलौकिकता की अनहोनी वह भुलाए
डर के भरमाए मन काँपे जबकि कोई न रुकावट हो
अब वह भी किस तरह कल पाए जब संकट की सदा आहट हो ?
पर क्या वास्तव में कोई अलौकिक भयंकर कोई तत्त्व भी है ?
सच तो यह है की यों कुछ भी नहीं, सब डर के घाते घाव ही हैं
मन पे बस रखना होगा जभी इस अनन्त डर को मिटाना हो
हालांकि डर में थरथराओ, तब भी सोच को बल से उठा दो
सारे सोच - विचार, सूझ - बूझ, भाव - रास रोकें आगे बढ़ने से
फिर भी जब सच है कि भूत नहीं, बरबस ही सही निकलो डर से
जब रास डर का हो, मन की कही मत मानो वरन पागलपन यह लगे
ठोस बनकर ललकारो अलौकिकता की होनी को, डर तुम्हें ठगे
चाहे साँप सूँघ जाए तुमको, इस बात पे ही तुम अड़िया बनो
कि अलौकिक, अतिप्राकृतिक किसी बस्तु की अस्ति नहीं, ठानो
अंत में जब तुम दबाव डाल, बिलकुल भी न मानो कि कोई प्रेत है
भय से अगसरके चतुर बनोगे, अपने किए पर तब न खेद है
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